मेरे दादा जी।
21 अगस्त 2021, दिन शनिवार को मेरे दादा जी का देहावसान हो गया। उनकी उम्र लगभग 90 से 95 वर्ष के बीच मानी जाती है। अंत के अगर लगभग 2 महीनों को छोड़ दिया जाए, तो वो लगभग पूर्णतया स्वस्थ प्रतीत होते थे। हम सभी , उनके पोते, या शुद्ध हिंदी में कहें तो पोत्र उनको प्यार से बाब्बा जी कहकर बुलाते थे। आने वाले सभी मेहमानों को वो हमारा परिचय लगभग हर बार अपने पोते के रूप में ही दिया करते थे।
हम लोग लगभग 16 अगस्त 2021 को घर पहुंच गए थे, एवं अंत के कुछ दिन उनके सानिध्य में रहने का अवसर हमें भी मिला। 21अगस्त 2021 को दिन में लगभग 2 बजे उन्होंने कुछ बात कहनी चाही जरूर, लेकिन उनकी आवाज को पास बैठे कोई भी पारिवारिक सदस्य शायद समझ नहीं पाया। अंत में उन्होंने अपने हाथो के इशारे से कुछ बात कहनी चाही, जिसका अलग अलग मंतव्य पारिवारिक सदस्यों ने निकाला। मिला जुला सा अर्थ यह निकला कि वो सभी सदस्यों को मिल जुल कर रहने के लिए बोल रहे थे।
अंत के कुछ दिनों में उनके साथ रहते हुए, कई बार उनसे बात की। वो बीमार होने के कारण बोल नहीं पाते थे, लेकिन हर एक बात को समझते जरूर थे। वो हृदय रोग से पीड़ित थे, और अंत के कुछ दिनों में की गई एंजियोप्लास्टी को उनका शरीर शायद नहीं संभाल पाया। अत्यधिक रक्तस्राव होने के कारण वो कमजोर प्रतीत होने लगे। यह कमजोरी एवं खाना खाने की उनकी अनिच्छा उनके लिए प्राणघातक साबित हुई।
अन्तिम दिनों में उनसे बातें करते हुए भी उनका मनमौजी स्वभाव कायम रहा। इतने कष्ट में होने के बावजूद भी उन्होंने कभी पारिवारिक सदस्यों से खिन्नता नहीं दिखाई। हालांकि वो बोल नहीं पाते थे, लेकिन उनको प्रफुल्लित करने के लिए पारिवारिक सदस्यों द्वारा किए गए छोटे मोटे व्यंग्यों से भी वो कभी खिन्न प्रतीत नहीं हुए। बातों बातों में पूछने से पता चला कि अपने जीवनकाल में एक मूवी भी वो सहारनपुर जिले के किसी थियेटर में देख चुके थे। हालांकि वर्तमान पीढ़ी को ये कोई बहुत बड़ी बात नहीं लगेगी, लेकिन ग्रामीण परिवेश में पले बढ़े मेरे दादा जी के लिए वास्तव में बहुत बड़ी बात थी।
हृदय रोग से ग्रसित होने के बाद भी, दादा जी ने कभी किसी तरह का कोई परहेज़ नहीं किया। अन्तिम दिनों में पारिवारिक सदस्य व्यंग्य के लिए उनसे विभिन्न प्रकार की चीज़ें खाने के लिए पूछ लिया करते थे, लेकिन इस बात पर उन्होंने कभी किसी तरह की खिन्नता नहीं दिखाई।
यद्यपि वो रेडियो सुनने के बहुत शौकीन थे, किन्तु अंत समय में उन्होंने रेडियो की तरफ से अपना लगाव खो दिया था। मैंने एक या दो बार उनके लिए कुछ रागनी अपने स्मार्टफोन पर चलाई, जिनको उन्होंने सुना भी, लेकिन खुद से रागनी सुनने की इच्छा उन्होंने कभी नहीं की।
बड़े चाचा जी उनको प्रतिदिन सुबह नहला रहे थे। क्योंकि उनको हिलने डुलने में दिक्कत थी, तो वो नहाने के लिए हमेशा अनिच्छा ही प्रदर्शित करते थे। लेकिन एक या दो बार बोलने के बाद हालांकि नहाने के लिए तैयार भी हो जाते थे। अन्तिम दिन चाचा जी को देखते ही, उन्होंने खुद ही अपने पैर अपनी चारपाई से नीचे कर लिए, नहाने की इच्छा ज़ाहिर करने के लिए। अन्तिम दिन होता ही शायद ऐसा है। प्रकृति विभिन्न तरह की बातें इन छोटे छोटे से इशारों से शायद हमें बताने की कोशिश करती है। बारिश होने के कारण न तो मेरी और न ही चाचा जी की इच्छा उनको नहलाने की थी, लेकिन फिर भी उस दिन वो खुद ही नहाने के लिए तैयार थे।
अंत के कुछ दिनों में मेरे द्वारा, उनको भोजन का आग्रह करना, एवं उनका अनिच्छा जताना लगभग एक दिनचर्या बन गया था। एक या दो बार बोलने के बाद वो कुछ खाने के लिए मान भी जाते थे। लेकिन खाना आने के पश्चात फिर से खुद को कुछ भी खा पाने में असमर्थ पाते थे। इन सब के बीच कई बार ऐसा लगता था कि मानो वो कोई बहुत छोटी उम्र के बच्चे हो, जो किसी बीमारी के कारण कुछ करने में स्वयं को असमर्थ पाता है। उनका व्यवहार अंत के कुछ दिनों में बिल्कुल एक छोटे बच्चे की तरह ही हो गया था।
जब भी कोई सदस्य कुछ खाने के पूछता था, तो वो खाने के लिए तो अनिच्छा जताते थे, लेकिन उस सदस्य को अपने पास बस बैठे रहने के लिए ही आग्रह करते थे। शायद अंत के कुछ दिनों में इतना ही अकेला मनुष्य स्वयं को महसूस करता हो !
उनके जीवन से मिलने वाली शिक्षा :-
हम लोगों को आजकल फैशन हो गया है कि अपने आदर्श हम दूर दराज के किसी तथाकथित ब्रांडेड व्यक्ति को ही मानते हैं। अपने आसपास रहने वाले लोग हमारे आदर्श कभी हो ही नहीं सकते, ऐसी हमारी सोच हो गई है। मेरे दादा जी बहुत ही कम पढ़े लिखे व्यक्ति थे। आजकल के पैमानों से उनको अशिक्षित कहना शायद ज्यादा सही होगा। हालांकि वो स्कूल गए थे, एवं उनके ज़माने के ग्रामीण परिवेश में ये शायद बहुत बड़ी बात हुआ करती थी। वो अखबार पढ़ लिख लिया करते थे, एवं कृषि कार्यों से संबंधित छोटा मोटा हिसाब किताब भी वो लगा लिया करते थे। अब आजकल के जमाने के शिक्षित लोग, दादा जी जैसे व्यक्ति से क्या ही सीख सकते हैं ? हालांकि मुझे लगता है कि अगर उनके व्यक्तित्व की कुछ विशेषताएं मुझमें आ जाए, तो मैं बहुत बेहतर इंसान बन सकता हूं। ऐसी ही कुछ विशेषताओं का वर्णन मैं नीचे किए दे रहा हूं :-
१. दादा जी जिस बात को एक बार ठान लेते थे, उसको पूरा करके ही दम लेते थे। उनके स्वभाव को देख कर लगता भी नहीं था कि वो इस तरह के व्यक्ति हो भी सकते है। उन्होंने कई तरह के नशे अपने जीवन में किए। उन्होंने पान खाया, तम्बाकू खाया, एवं हुक्का भी पिया। और ये नशे भी इस तरीके से किए की उनकी बराबरी कोई दूसरा व्यक्ति नहीं कर सकता था। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने कभी इन नशों को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। डॉक्टर के एक बार बोलने मात्र से उन्होंने हुक्का पीने की अपनी आदत को एक ही दिन में त्याग दिया। जो सोचा वो बस एक बार में ही निर्णय करके पूरा कर दिया। इसी तरह उन्होंने अपनी पान खाने एवं तम्बाकू खाने की आदत को भी मन में आने पर त्याग दिया। वर्तमान पीढ़ी जो कि नशे के अभिशाप से ग्रसित है, एवं बोलती है कि वो किसी भी तरीके से इस व्यसन से दूर नहीं हो सकते, मेरे दादा जी से सीखने कि जरूरत है कि किस तरह ग्रामीण क्षेत्र के एक तथाकथित अशिक्षित व्यक्ति ने अपनी इच्छा शक्ति के बल पर, अपने व्यसनों को हमेशा के लिए त्याग दिया। अगर इस तरह की इच्छाशक्ति मुझमें भी हो, तो शायद मैं बहुत बेहतर इंसान बन जाऊं।
२. दादा जी हमेशा ही मनमौजी एवं घुमंतू प्रवृति के रहे हैं। घुमंतू से मेरा तात्पर्य ये नहीं है कि वो भारत दर्शन कर चुके हैं, वरन् ये है कि उनका देश बहुत ही सीमित था एवं वहीं पर घूमना ही उनको अच्छा भी लगता था। कभी किसी भी पारिवारिक विपत्ति आने के बावजूद भी वो ज्यादा परेशान नहीं होते थे, और हमेशा शांत ही बने रहते थे। अगर पारिवारिक सदस्य भी उनके साथ अपनी कोई समस्या साझा करता था, उसको भी वो तनाव न लेने की ही सलाह देते थे। कोई उपाय न होने के बावजूद भी वो बस अपने शब्दों से ही खुशी दे दिया करते थे। उनका ये शांत रहने का अंदाज़ भी शायद उनकी लंबी उम्र का राज था। हमारी वर्तमान पीढ़ी जो कि हर एक छोटी मोटी बात की वजह से तनाव में रहती है, उनकी शांत रहने की इस कला से बहुत कुछ सीख सकती है। गांव के किसी भी व्यक्ति के बारे में उन्होंने कभी हम लोगों को बुरा नहीं समझाया। ये शांत रहने की प्रवृति, इस भाग दौड़ भरी जिंदगी में सबको सुकून दे सकती है।
३. दादा जी कभी भी खिन्न नहीं होते थे। उनको जिस भी तरह का खाना दिया जाए उसको उतने ही प्रेमभाव से वो खाया करते थे। साफ सुथरे कपड़े पहनने का शौक उनको जरूर था, लेकिन इसकी वजह से किसी भी पारिवारिक सदस्य को उन्होंने बुरा भला कहा, ऐसा मुझे याद नहीं है। अपने पारिवारिक सदस्य की हर एक छोटी बड़ी उपलब्धि पर वो गौरवान्वित महसूस करते थे। ये सब बातें उनके परम संतोषी होने की तरफ इशारा करती है। अपने पास जो भी वस्तु है उसमें संतोष करने की प्रवृति भी हमारी पीढ़ी खोती जा रही है, संसार के आधे से ज्यादा दुखों का कारण शायद ये भी है।
दादा जी आप अब बस स्मृतियों में ही शेष हो। आपकी बातें अब बस हमारी स्मृतियों में ही रहेंगी। हम उनको याद कर प्रफुल्लित तो होते रहेंगे लेकिन आपकी कमी हमेशा रहेगी, जो कभी पूरी भी नहीं हो पाएगी।
(नवंबर 5, 2018 को अपनेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेे दादा जी के साथ नकुड तहसील की एक दुकान पर चाट का आंनद लेने गया लेखक)
Aati uttam , avishmarniya or Sath hi bavnatamak.
ReplyDeleteDada dadi ka prem sabse anokha hota h.. jise bhulaya nhi ja skta ..kisi se toula nhi ja skta.
Thank you Very Much।
DeleteBahut hi achhe tarike se nanaji ki khubiyo ko btaya h .vastav me wo ek bahut hi shandar aur shantchitt vyakti the
ReplyDeleteThank you very much 💞
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ReplyDeleteनाना जी की आत्मा को मोक्ष प्राप्त हो ऐसी परम पिता परमात्मा से प्रार्थना करते है... ओम शांति
ReplyDelete🙏🙏
DeleteChotise choti baat apne bahot ache tarikese batayi he, isase apka dadaji k prati prem aur lagao mahsus hota he aur sath hi une khoneka dukh bhi...
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