मुरमुरे नमकीन की वो यादें।
कल आमला की साप्ताहिक बाजार में जाना हुआ। साप्ताहिक बाजार में अलग अलग तरह की ताजी हरी सब्जियों को खरीदा जा सकता है। कुछ व्यापारी और कुछ किसान भी स्वयं आकर इन साप्ताहिक बाजारों में ताजी सब्जियों को बेचने आते हैं।
ऐसे ही घूमते घूमते एक दुकान पर, मेरी ही उम्र के एक व्यापारी को मुरमुरे नमकीन इत्यादि बेचते हुए देखा। अनायास ही खरीदने का मन हुआ। एक पैकेट मुरमुरे और कुछ नमकीन को घर के लिए खरीद लिया। लेकिन इन नमकीन और मुरमुरे के पैकेट के साथ ही बचपन की कुछ यादों को भी पॉलीथीन में बांध कर घर ले आया।
बचपन में एक संयुक्त परिवार में रहने के कारण, गांव की किसी भी दुकान से कुछ भी खरीदने की जैसे मनाही सी रहा करती थी। गांव में किसी भी सामान को खरीदने से रोकने के लिए घर वालों के द्वारा हमारे बाल सुलभ मस्तिष्क में अच्छे एवं बुरे बच्चों की इमेज, दिन प्रतिदिन के प्रोपोगंडा द्वारा उकेर दी गई थी। अच्छे बच्चों जैसा बने रहने की नैतिक जिम्मेदारी भी हमारे कंधो पर आ गई थी, जिसे की हम पूरे बचपन भर अपने कंधों पर धोते रहे और हमेशा टॉफी इत्यादि जैसी लक्जरी चीजों को त्याग ही हमने किए रखा। हां, लेकिन एक बात ये भी थी, की ऊपर बताए गए मुरमुरे और नमकीन, एवं मुरमुरे बताशे ( हमारी भाषा में इनको मुरमुरे एवं मीठी खील कहा जाता था ) हमारे आसपास के गांव में उतनी ज्यादा चलन में बच्चों के बीच नही थी।
गर्मियों में स्कूल की छुट्टियों में मामा जी के यहां जाना होता था। उस गांव में तो जैसे मुरमुरे और नमकीन का ही फैशन हुआ करता था। हर एक नया बच्चा दुकान पर नमकीन एवं मुरमुरे के लिए लाइन लगाए रखता था। मामा जी एवं नानी जी द्वारा अच्छे बच्चे बनने की नैतिक जिम्मेदारी का दबाव भी हम लोगों पर नहीं डाला जाता था। हम लोग थोड़े जल्दी मामा जी के यहां पहुंच जाया करते थे। वहां पर बच्चों की संख्या बहुत कम हुआ करती थी। जो कुछ संख्या थी भी, वो भी आस पास के परिवारों में अपने ननिहालों में आने वाले बच्चों की ही हुआ करती थी। इस तरह के अकेलापन होने के वजह से हम लोगों का मन वहां पर रम नही पाता था। मामा जी इत्यादि लोग इस तरह वहां हमारा मन न लगने को अपनी कमी के रूप में शायद देखते थे, और शायद इसी कारण से गांव में मुरमुरे इत्यादि खरीदने से हमको रोका नहीं जाता था। मुझे याद नहीं है की मामा जी के गांव की दुकानों से हम लोगों ने मुरमुरे नमकीन के अलावा भी कुछ खरीदा हो।
मुरमुरे नमकीन खाने में अच्छे तो लग रहे हैं, पर शायद वो बचपन वाली बात अब इनमे नही रह गई है। तब इनकी ज्यादा आवश्यकता प्रतीत होती थी। बहुत ज्यादा मात्रा में खाने के बावजूद भी, खाने से मन नहीं भरता था। आज लेकिन ऐसा नहीं लग रहा है। बहुत थोड़ा सा खाते ही मन भर गया है।
खैर, इनके टेस्ट का पता तो अब तुलनात्मक अध्ययन के बाद ही चल पाएगा। इस बार मामा जी के यहां जाकर फिर से मुरमुरे टेस्ट करते हैं।
इति सिद्धम।
सच में भाई बचपन की याद ताजा हो गई चने की दाल की नमकीन और मुरमुरे का अपना अलग ही मजा था
ReplyDeleteBahaut bahaut dhanyawad
DeleteMeethe Dane , namkeen or murmure.. kya khne
ReplyDeleteThank you very much.
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