इस बार दीपावली की छुट्टियां बहुत लंबी एवं बहुत अच्छी भी रही।
हमारी जो ये पीढ़ी है,वो हर काम जल्दी करने में बहुत यकीन रखती है। मैं भी इस तरह की सोच से अछूता नहीं हूं। हमारी इस पीढ़ी को बहुत ज्यादा योजना बनाकर किसी कार्य को करना बिलकुल पसंद नहीं है। इसी तरह अल्प अवधि में बिना सुचारू योजना बनाए की गई यात्रा का खामयाजा मुझे भी भुगतना पड़ा।
आगे की कुछ पंक्तियों में इस अल्प अवधि में बिना किसी अच्छी योजना के द्वारा की गई मेरी यात्रा में मुझे क्या कठिनाई सहनी पड़ी एवं मैने इससे क्या सीख ली, यही कुछ आगे बता रहा हूं।
संदर्भ
मेरा पुश्तैनी घर उत्तरप्रदेश के सहारनपुर जिले में हैं। यह जिला, उत्तराखंड राज्य के हरिद्वार एवं देहरादून जिलों में एवं हरियाणा राज्य के यमुनानगर एवं करनाल जिलों से मिलता हुआ है। उत्तरप्रदेश के उत्तरी कोने पर यह जिला स्थित है।
दिल्ली से चलकर देहरादून को जाने वाली गाड़ियां, इसी जिले से होकर जाती हैं। यह रेलवे लाइन इस दिशा में देहरादून एवं ऋषिकेश में जाकर समाप्त हो जाती है।
इसके अलावा कुछ गाड़ियां, दिल्ली से चलकर, सहारनपुर होते हुए, अंबाला पहुंचती हैं, जहां पर ये गाड़ियां दिल्ली अंबाला की मुख्य लाइन से जुड़ जाती हैं।
जिले की इस भौगोलिक अवस्था के कारण, लंबी दूरी तक जाने वाली रेलगाड़ियों की संख्या, सहारनपुर से होकर बहुत ही सीमित हैं। हालांकि सहारनपुर रेलवे स्टेशन, अंग्रेजी सरकार के समय से, देहरादून इत्यादि शहरों को दिल्ली से जोड़ने के लिए अस्तित्व में आ गया था, लेकिन फिर भी भौगोलिक अवस्था के कारण लंबी दूरी की रेलगाड़ियों की संख्या अभी भी सीमित है।
इस पटकथा को बताने का उद्देश्य यह है कि लंबी दूरी की रेलगाड़ियों के इस अभाव के कारण, सहारनपुर से लंबी दूरी की यात्रा करने वाले यात्रियों को पहले कोई गाड़ी पकड़ने के लिए दिल्ली तक की यात्रा करनी पड़ती है।
युवा पीढ़ी के मुझ जैसे किताबी होनहार (😄, आगे आप भी मेरी बुद्धिमत्ता के कायल होने वाले हैं ) के लिए दिल्ली से गाड़ी पकड़ना इसलिए भी असहाय हो जाता है कि हमे कम से कम दो बार तत्काल सुविधा की तरफ देखना पड़ता है। एक बार दिल्ली तक की यात्रा एवं दूसरी दिल्ली से आगे तक की।
दीपावली की छुट्टियां जैसे ही समाप्ति की ओर बढ़ी, तो मैंने सर्वप्रथम जालंधर से चल कर दिल्ली को जाने वाली रेलगाड़ी में, तत्काल सुविधा का लाभ लेते हुए अपना एक टिकट बुक कर लिया, जिसमे कि मुझको सीटों का आवंटन भी हो गया। इसके उपरांत मैने दिल्ली से चलकर आमला को जाने वाली एक और रेलगाड़ी का टिकट भी बुक कर लिया, वो भी तत्काल सुविधा के माध्यम से। इस दूसरे टिकट में भी मुझको सीटों का आवंटन हो गया।
यात्रा का दिन
यात्रा वाले दिन, मैने, सपरिवार, सहारनपुर से यात्रा शुरू की। दिल्ली से सहारनपुर जाने वाली मेरी ट्रेन बिलकुल सही समय पर थी। इस ट्रेन ने हमको नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर दोपहर के लगभग एक बजे छोड़ दिया। यह भी यात्रा के अनुरूप ही था। चूंकि हमारी ट्रेन शाम के पांच बजे थी, तो अभी भी हमारे पास लगभग चार घंटे थे।
यात्रा करते हुए हम दोनो को ही बहुत भूख लग आई थी। तय हुआ कि हम अपने सामान को अमानती कार्यालय में जमा करेंगे एवं नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के बाहर स्थित, बहुत ही पुरानी, राधेश्याम छोले भटूरे वाली दुकान पर खाना खाएंगे। हमने किया भी लगभग ऐसा ही, लेकिन अमानती कार्यालय में भीड़ होने के कारण हमने अपना सामान वहां जमा नहीं किया एवं उसको हम खाने के दौरान साथ लेकर गए।
खाने के बाद हम लोग, निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन की तरफ एक ऑटो के माध्यम से बढ़ चले। लगभग सवा दो बजे हम स्टेशन पर पहुंच भी गए। स्टेशन पर पहुंचने के बाद हमने वेटिंग रूम में जाकर बैठने का सोचा लेकिन भीड़ बहुत ज्यादा होने के कारण हमे वहां से दूर होना पड़ा।
शुरू हुई दिक्कत
एक डिजिटल बोर्ड के पास हम लोग बैठ गए। डिजिटल बोर्ड पर लगभग रात के बारह बजे तक जाने वाली गाड़ियों का लेखा जोखा चल रहा था। हमे हैरानी हुई कि इसमें हमारे वाली गाड़ी का नामो निशान नहीं है। हमने लगभग पंद्रह मिनट तक बार बार बदल रहे डिजिटल बोर्ड को ध्यान से देखा लेकिन इसके बाद भी हमे अपनी गाड़ी के बारे में कोई जानकारी नहीं मिली।
अब थोड़ा संदेह हुआ। हमने अपना टिकट चेक किया तो पाया कि जो गाड़ी हमने बुक की थी, वो इस स्टेशन पर सुबह के पांच बजे थी न कि शाम के पांच बजे। असल में हम लोगों से बहुत बड़ी भूल हो गई थी। हमने रेलगाड़ियों के समय को ध्यान से नहीं पढ़ा था। हालांकि गाड़ियों का समय 24 घंटे के रूप में रहता है लेकिन तब भी हमसे गलती हो गई थी।
टिकट के हमारे पैसे भी व्यर्थ जा चुके थे एवं हम अपने घर से लगभग पांच घंटे की यात्रा पूरी कर दिल्ली आए थे। हमे जल्दी से आगे कुछ सोचना था एवं निर्णय लेना था। एक बारगी बहुत ही परेशानी वाले खयाल दिमाग में आए।
सामने डिजिटल बोर्ड पर आमला जाने के लिए, गोंडवाना एक्सप्रेस प्रदर्शित की जा रही थी, जो कि इस स्टेशन को शाम के 03:05 पर छोड़ने वाली थी। हम दोनो ही लोगों ने निर्णय लिया कि अब टिकट लेकर इसी गोंडवाना एक्सप्रेस से यात्रा करना उचित होगा, क्योंकि अगर अभी घर वापिस गए तो कम से कम तीन दिन तक फिर से हमे दूसरी ट्रेन के टिकट के लिए इंतजार करना पड़ेगा। इसी दौरान मैंने दिल्ली से आमला एवं दिल्ली से भोपाल तक की गाड़ियों में टिकट चेक किया लेकिन कहीं पर भी हमे टिकट नहीं मिला। अंत में लगभग 02:45 पर हमने बिना रिजर्वेशन वाला टिकट,काउंटर से लिया, और एक हताश मन से यात्रा करने की ठानी।
यात्रा
टिकट लेकर हम स्लीपर कोच में बैठ गए। ट्रेन ने अपने ठीक समय पर यात्रा शुरू कर दी। दिल्ली से मथुरा तक ट्रेन बिलकुल खाली थी और हमे लगा की बहुत ही सुगमता पूर्वक यात्रा पूरी हो जायेगी। मथुरा आते ही, ट्रेन महाराष्ट्र वापिस जाने वाले कृष्ण भक्तों से भर गई। हम लोगों को एक सीट से उठा कर दूसरी सीट पर भेजा जाने लगा। हमारे सामान को बीच रास्ते में रख दिया गया। बैठने के लिए हमे एक छात्र ने थोड़ी जगह दी, जो कि दिल्ली से अपने घर के लिए यात्रा कर रहा था।
मैं टिकट चेकर के पास भी गया, की शायद वो हमे केवल एक सीट तो दे, लेकिन टिकट चेकर ने हमे बिलकुल स्पष्ट शब्दों में सीट के लिए मना कर दिया।
ये सब करने में रात के लगभग आठ बज चुके थे। हम सुबह घर से निकले हुए थे एवं अब बहुत ज्यादा थकान महसूस हो रही थी। सारी स्लीपर एवं एसी बोगियां भीड़ से खचाखच भरी हुई थी। भीड़ थी, कुछ लौटते हुए कृष्ण भक्तों की एवं कुछ दीपावली की छुट्टियां मनाकर वापस लौट रहे कर्मचारियों की।
अब हमे न भूख लग रही थी और न कुछ पानी पीने का मन कर रहा था। हमारे पास सीट नहीं थी एवं बहुत तेज नींद के हिचकोले आ रहे थे। अपनी घड़ी में किसी तरह समय काटने की प्रतीक्षा मैं कर रहा था। रात के लगभग 11 बजे झांसी आया एवं भीड़ में थोड़ी कमी महसूस होनी शुरू हुई किंतु सीट हमे आमला तक नही मिली।
सुबह के 5 बजे गाड़ी ने हमको आमला छोड़ा। लगभग 14 घंटे की इस यात्रा में हम लोगों ने कुछ नही खाया, सिर्फ दो पानी की बोतल से हमने पानी पिया।
5 बजे हम लोग आमला पहुंचे एवं वहां से ऑटो के द्वारा अपने आवास तक आए।
आवास पर आते ही हम लोग सो गए एवं सुबह के 8:30 तक सोए रहे एवं उसके बाद ऑफिस आने की तैयारी की।
इस प्रकार एक बहुत ही थका देने वाली यात्रा का अंत हुआ।
ईश्वर का शायद ऐसा ही आदेश था। या शायद ईश्वर ने किसी दूसरी बड़ी विपत्ति से, इस माध्यम से, हम दोनो को ही बचा लिया। ईश्वर ने ही हमको, अमानती कार्यालय पर भीड़ इकट्ठी कर, सामान साथ रख लेने वाली परिस्थितियां बना कर, हमको इस ट्रेन के समय पर स्टेशन पहुंचा कर, ये यात्रा करने की परिस्थितियां हमको दी। ईश्वर की शायद यही इच्छा भी थी।
आगे आने वाली सभी यात्राओं को एक पूर्व नियोजित प्लान के अनुसार पूरा करूंगा, ऐसे संकल्प के साथ मैं अपनी लेखनी को अब विराम देता हूं।
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**इति सिद्धिम**
Nice blog Anupam, you realised that our every activity depends on the supremes wish and his plans are always better than what we think. also without confirming the exact timing of trains and an unplanned journey can create a lot of difficulties.
ReplyDeleteHope it will be a lesson for all who read it.
Anil Chouksey
Thank you Very much Sir।
DeleteYour words means a lot।
आपकी कहानी के हम सच में क़ायल हो गये
ReplyDeleteThank you ji।
DeleteBahut hi dukhad ghatna hui aapke sath.. Prr bhagwan ne fir bhi sahi kiyaa..
ReplyDeleteHanji.
DeleteThank you for reading the post.